कांग्रेस का हमला: लोकसभा में भाजपा सांसदों द्वारा सवाल वापस लेने पर उठाए सवाल
कांग्रेस का हमला अब सिर्फ राजनीतिक बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी प्रक्रियाओं पर गहरी चिंता का स्वरूप ले चुका है। संसद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दो सांसदों द्वारा अपने पहले से स्वीकार किए गए प्रश्नों को लोकसभा में उठाने से ऐन वक्त पर इनकार करना, एक चौंकाने वाला और चिंताजनक घटनाक्रम बन गया है।
इस घटना को लेकर कांग्रेस ने जिस आक्रामकता और स्पष्टता से मोर्चा खोला है, वह सिर्फ सत्ता की आलोचना नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मूल्य-व्यवस्था की संकटपूर्ण स्थिति को दर्शाता है। आइए विस्तार से समझते हैं इस पूरे प्रकरण की पृष्ठभूमि, इसकी राजनीति, संभावित रणनीति, और इसके दूरगामी प्रभाव।
क्या हुआ लोकसभा में? – एक नज़र घटनाक्रम पर
संसद का मानसून सत्र अपने पूरे चरम पर था। सदन की कार्यसूची में भाजपा के दो सांसदों – संजय सेठ (झारखंड) और गिरीश बापट (महाराष्ट्र) – के सवाल सूचीबद्ध थे। ये प्रश्न “स्टारred questions” की श्रेणी में थे, यानी जिन पर मंत्री को मौखिक रूप से जवाब देना होता है और आगे बहस की संभावना भी होती है।
लेकिन जैसे ही प्रश्न पूछने का समय आया, इन दोनों सांसदों ने अचानक अपने प्रश्न वापस ले लिए। न तो कोई सार्वजनिक कारण दिया गया और न ही कोई स्पष्टीकरण। यह पूरी प्रक्रिया संसद के नियमों के अंतर्गत वैध अवश्य है, लेकिन इससे उपजा राजनीतिक संदेश बेहद गंभीर है।
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कांग्रेस का तीखा वार – “डर की राजनीति”
कांग्रेस ने भाजपा पर सीधे-सीधे आरोप लगाया कि वह अब अपने ही सांसदों को सवाल पूछने से रोक रही है। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने इस मुद्दे पर कहा:
“यह सिर्फ सवाल वापस लेने का मामला नहीं है, यह एक डर का संकेत है। सरकार अब सवालों से भाग रही है।”
वहीं, वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने इसे “गंभीर लोकतांत्रिक अवहेलना” बताते हुए कहा कि अगर प्रश्न पूछना भी अब ‘संवेदनशील’ हो गया है, तो फिर संसद का क्या महत्व रह गया?
प्रश्नों का विषय क्या था?
कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, जिन प्रश्नों को वापस लिया गया, वे दोनों ही केंद्र सरकार की योजनाओं की कार्यप्रणाली और वित्तीय खर्च पर केंद्रित थे:
- एक प्रश्न प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत राज्यों को मिले आवंटन और निर्माण कार्य की प्रगति पर था।
- दूसरा प्रश्न आयुष्मान भारत योजना के बजट उपयोग और सेवा वितरण पर केंद्रित था।
इन सवालों के जवाब में सरकार से जवाबदेही की उम्मीद थी – लेकिन अब वो जवाब अधर में लटक गए।
क्या कहते हैं भाजपा सांसद और पार्टी?
भाजपा ने इस पूरे मामले को “अनावश्यक राजनीतिककरण” कहा है। पार्टी प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने कहा:
“सांसदों के पास प्रश्न वापस लेने का संवैधानिक अधिकार है। इसमें कोई दबाव या साजिश नहीं है। कांग्रेस अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसे मुद्दा बना रही है।”
संजय सेठ ने मीडिया से कहा कि उन्होंने प्रश्न “निजी कारणों” और “पहले से सूचना प्राप्त होने” की वजह से वापस लिया।
हालांकि यह स्पष्टीकरण उथला और अस्पष्ट माना गया, क्योंकि प्रश्न सूचीबद्ध हो जाने के बाद उसे वापस लेना अत्यंत दुर्लभ होता है, विशेषकर जब वह सत्तारूढ़ दल से हो।
विश्लेषण: क्या यह एक नई रणनीति है?
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह मामला सिर्फ दो सांसदों का नहीं है, बल्कि यह एक गहरी रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
संभावनाएं:
- सरकार की छवि को बचाने की कोशिश – विपक्षी दलों के सामने नकारात्मक आंकड़े आने से पहले ही सवालों को हटाना।
- सेंसरशिप के संकेत – अगर सांसद अपने सवालों को पार्टी नेतृत्व की अनुमति के बिना नहीं पूछ सकते, तो यह गंभीर संकेत है।
- संसदीय परंपराओं पर आघात – यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक नई चुनौती के रूप में देखा जा रहा है।
सोशल मीडिया पर जनता की आवाज़
यह विषय जैसे ही सामने आया, ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पर जनता की प्रतिक्रियाएं बाढ़ की तरह उमड़ पड़ीं।
#सवालवापसी और #ParliamentCensorship ट्रेंड करने लगे।
कुछ चर्चित टिप्पणियाँ:
- “सवाल से डरने वाली सरकार, जवाबदेही से कैसे निभाएगी?”
- “अगर सांसद ही चुप हो जाएं तो फिर आम जनता की आवाज़ कौन बनेगा?”
- “ये लोकतंत्र की हार है।”
लोकतंत्र के लिए यह घटना क्या संकेत देती है?
सवाल सिर्फ उन दो सांसदों का नहीं है। यह पूरे संसद की स्वतंत्रता और गरिमा से जुड़ा मामला है।
लोकतंत्र की आत्मा है – प्रश्न, बहस, और जवाबदेही। जब सांसद – जो जनता की आवाज़ बनकर संसद पहुंचते हैं – वे सवाल पूछने से पीछे हटते हैं, तब यह सिर्फ एक संसदीय मामला नहीं, बल्कि जन प्रतिनिधित्व की विफलता बन जाती है।
लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका और ज़िम्मेदारी
लोकसभा अध्यक्ष पर भी कांग्रेस ने अपील की है कि वह इस मामले को संज्ञान में लें और स्पष्ट करें कि क्या सांसदों को दबाव में सवाल हटाना पड़ा।
यदि ऐसा हुआ है तो यह सिर्फ संसदीय प्रक्रिया की कमजोरी नहीं बल्कि संसद की साख को गहरा आघात है।
राह क्या है? क्या हो सकते हैं समाधान?
इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए कुछ संस्थागत सुधारों की जरूरत है:
- प्रश्न वापसी की पारदर्शिता – अगर कोई सांसद सवाल हटाता है, तो कारण लिखित रूप से सार्वजनिक किया जाए।
- सांसदों की स्वतंत्रता की गारंटी – किसी भी दल का नेतृत्व सवाल पूछने पर रोक न लगा सके।
- जनता की निगरानी – जनता को अपने प्रतिनिधियों से सवाल करने का अधिकार हो और वे जान सकें कि उनके सांसद संसद में कितने सक्रिय हैं।
विपक्ष की एकजुटता – मुद्दे को बनाने की कोशिश
इस मुद्दे पर न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम और आरजेडी जैसे अन्य विपक्षी दलों ने भी भाजपा को घेरा है।
संजय सिंह (आप) ने कहा:
“यह अब ‘लोकतंत्र बचाओ आंदोलन’ का रूप ले सकता है, अगर संसद में सवाल उठाना भी जुर्म बन जाए।”
डेरिक ओ ब्रायन (टीएमसी) ने भी ट्वीट किया:
“पहले बोलने से रोका, अब सवाल पूछने से। अगला कदम क्या होगा – सोचने की जरूरत है।”
इतिहास के आईने में देखें तो…
भारत की संसदीय परंपरा में प्रश्नकाल एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्तंभ रहा है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, सभी प्रधानमंत्रियों ने सवालों का सम्मान किया। यहां तक कि सबसे कठिन सवालों का भी सामना किया गया।
यदि अब यह परंपरा टूटने लगे, तो यह केवल एक पार्टी की बात नहीं, देश के लोकतंत्र की जड़ें हिलाने जैसा होगा।
निष्कर्ष: क्या वाकई लोकतंत्र खतरे में है?
कांग्रेस का हमला केवल एक राजनीतिक चाल नहीं, बल्कि यह सवाल है – क्या अब भारत में सांसद भी डरने लगे हैं?
और अगर ऐसा है, तो यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार है।
सवाल उठाना अधिकार है। जवाबदेही तय करना कर्तव्य है। और अगर इन दोनों से डर लगने लगे, तो संसद महज़ एक ‘सरकारी औपचारिकता’ बनकर रह जाएगी।
अंतिम बात – जागरूक जनता ही लोकतंत्र की असली ताकत है।
आज जब संसद के भीतर सवाल पूछने से भी घबराहट महसूस होने लगे, तब जरूरत है कि संसद के बाहर – जनता, मीडिया और सिविल सोसाइटी – सवाल पूछना बंद न करें।



















